Sunday, 4 September 2016

गणपति अथर्वशीर्ष हिंदी अनुवाद 2

मंगलकारी है श्री गणपति अथर्वशीर्ष WD|  त्वं गुणत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:। त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं। त्वं शक्तित्रयात्मक:। त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्।।6।। तुम सत्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हो। तुम जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म औ वर्तमान तीनों देहों से परे हो। तुम भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों से परे हो। तुम मूलाधार चक्र में नित्य स्थित रहते हो। इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीन प्रकार की शक्तियाँ तुम्हीं हो। तुम्हारा योगीजन नित्य ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो, तुम विष्णु हो, तुम रुद्र हो, तुम इन्द्र हो, तुम अग्नि हो, तुम वायु हो, तुम सूर्य हो, तुम चंद्रमा हो, तुम ब्रह्म हो, भू:, र्भूव:, स्व: ये तीनों लोक तथा ॐकार वाच्य पर ब्रह्म भी तुम हो।  गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं। अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं। तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनुस्वरूपं। गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यमरूपं। अनुस्वारश्चान्त्यरूपं। बिन्दुरूत्तररूपं। नाद: संधानं। सँ हितासंधि: सैषा गणेश विद्या। गणकऋषि: निचृद्गायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नम:।।7।। गण के आदि अर्थात 'ग्' कर पहले उच्चारण करें। उसके बाद वर्णों के आदि अर्थात 'अ' उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार उच्चारित होता है। इस प्रकार अर्धचंद्र से सुशोभित 'गं' ॐकार से अवरुद्ध होने पर तुम्हारे बीज मंत्र का स्वरूप (ॐ गं) है। गकार इसका पूर्वरूप है।बिन्दु उत्तर रूप है। नाद संधान है। संहिता संविध है। ऐसी यह गणेश विद्या है। इस महामंत्र के गणक ऋषि हैं। निचृंग्दाय छंद है श्री मद्महागणपति देवता हैं। वह महामंत्र है- ॐ गं गणपतये नम:। एकदंताय विद्‍महे। वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दंती प्रचोदयात।।8।। एक दंत को हम जानते हैं। वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। वह दन्ती (गजानन) हमें प्रेरणा प्रदान करें। यह गणेश गायत्री है।  एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्। रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्। रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्। रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।। भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्। आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृ‍ते पुरुषात्परम्। एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।9।। एकदंत चतुर्भज चारों हाथों में पाक्ष, अंकुश, अभय और वरदान की मुद्रा धारण किए तथा मूषक चिह्न की ध्वजा लिए हुए, रक्तवर्ण लंबोदर वाले सूप जैसे बड़े-बड़े कानों वाले रक्त वस्त्रधारी शरीर प रक्त चंदन का लेप किए हुए रक्तपुष्पों से भलिभाँति पूजित। भक्त पर अनुकम्पा करने वाले देवता, जगत के कारण अच्युत, सृष्टि के आदि में आविर्भूत प्रकृति और पुरुष से परे श्रीगणेशजी का जो नित्य ध्यान करता है, वह योगी सब योगियों में श्रेष्ठ है। नमो व्रातपतये। नमो गणपतये। नम: प्रमथपतये। नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय। विघ्ननाशिने शिवसुताय। श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।।10।। व्रात (देव समूह) के नायक को नमस्कार। गणपति को नमस्कार। प्रथमपति (शिवजी के गणों के अधिनायक) के लिए नमस्कार। लंबोदर को, एकदंत को, शिवजी के पुत्र को तथा श्रीवरदमूर्ति को नमस्कार-नमस्कार ।।10।।

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