पाप के संबंध में श्रीराम कहते हैं कि
चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही।।
सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई।।
इन चौपाइयों का अर्थ यह है कि प्यास के कारण पपीहा उसी तरह व्याकुल है, जैसे शंकरजी का द्रोही दुखी रहता है। सुख प्राप्त करने के लिए जो खीज, चिढ़, जो बेचैनी प्राप्त होती है, वह भी एक तरह का पाप है। अंत में शरद ऋतु के चंद्रमा की शीतलता को संतों से जोड़ते हुए कहते हैं,‘शरद-ऋतु के ताप को चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं। संत एक ऐसा नजरिया देते हैं, जिससे हम जान जाते हैं कि पाप क्या है और पुण्य क्या है। इसलिए यह गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए कि संत के पास या तीर्थ में जाने से पाप मिट जाएंगे।
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