|| श्रीमहाराज विरचित श्रीराम पाठ ||
|| श्रीराम समर्थ ||
ॐ नमो जी सद्गुरुनाथा | तुझे चरणी ठेविला माथा |
पूर्ण करी मनोरथा | विनंती माझी परिसावी ||१||
रामपाठाचा उच्चार | मम हृदयी करी उद्धार |
हेचि मागणे वारंवार | तुजलागी दयाळा ||२||
व्यास वाल्मीक नारदमुनी | शुकसनकादिक ज्याचे ध्यानी |
तो श्रीराम चक्रपाणी | मम वाणी वदो का ||३||
अयोध्यावासी नगरजन | रामासी भजती अनुदिन |
तो कौसल्यानंदन | मम हृदयी वसावा ||४||
सद्गुरू म्हणे ऊठ लवलाही | ज्ञानदीपाचे प्रकाशे पाही |
वस्तु आपली शोधून घेई | मग पावशी निजसुखा ||५||
सद्गुरू राजवैद्य पूर्ण | रामनामाचे रसायन |
स्वहस्ते मुखी पाजून | केले सावध स्वरूपी ||६||
नेत्री घातले बोधांजन | भवरोग काढिला मुळीहून |
मूर्ती दाविली सगुण | ते रूप वर्णिले न जाय ||७||
चतुर्भुज मेघश्याम सावळा | कांसे पीतांबर पिवळा |
गळा वैजयंतीमाळा | मुक्ताहार डोलती ||८||
अंगी चंदनाची उटी | केशर कस्तुरी लल्लाटी |
अमूल्य रत्ने शोभती मनगटी | कर्णी कुंडले तळपती ||९||
क्षुद्रघंटा वाजती कटी | दशांगुली मुद्रिकांची दाटी |
बाहुभूषणे शोभती मनगटी | सुवर्णपादुका चरणकमली ||१०||
शंख चक्र चाप बाण | वरद हस्त उदार वदन |
विशाळ भाळ आकर्ण नयन | ऐसा भगवान देखिला ||११||
गुप्त ठेविले निर्गुण | प्रकट केले स्वरूप सगुण |
श्रीराम अवतार घेऊन | धर्म स्थापिला स्वहस्ते ||१२||
अयोध्या पुण्यवान नगरी | तेथे श्रीराम राज्य करी |
तपोनिधी महाक्षत्री | सिंहासनी विराजे ||१३||
शेषे धरिले छत्र | भरतशत्रुघ्न करिती चामर |
भक्त प्रार्थिती वारंवार | जयजयकारे गर्जती ||१४||
नळ नीळ जांबुवंत | अंगद सुग्रीव बिभीषण भक्त |
निरिच्छ वायुसुत | सदा निमग्न रामरूपी ||१५||
वसिष्ठ विश्वामित्र ऋषी | दत्त दिगंबर तापसी |
ब्रह्मचारी कित्येक संन्यासी | रामनामी लुब्धले ||१६||
रामनाम हृदयी धरून | ध्यानी बैसले योगीजन |
यम इंद्र अग्नि वरुण | पंचवदन तप करी ||१७||
रामनामाची अपरिमित शक्ती | शेषाची वर्णिता खुंटली मती | वेदाची न चले गति | शास्त्रे लज्जित बैसली ||१८||
अनंत अवतारांचा महिमा | तोही रामनामी तुळेना |
ऐशिया रामाच्या सद्गुणा | मी मानव काय वर्णू ||१९||
रामी रंगले त्रिभुवन | जडमूढ काष्ठ पाषाण |
घटमठांत सर्वांत परिपूर्ण | त्याहून वेगळा राहिला ||२०||
पिंडब्रह्मांडाची रचना | तू निर्मिली रघुनंदना |
जगव्यापका आत्मारामा | शोधिता ठायी न पडे कोठे ||२१||
तुझे स्वरूपाची व्हावी प्राप्ती | यालागी कित्येक तप करिती | कित्येक पंचाग्निधूम्रपान साधिती | तयांसी अंत न लागे तुझा ||२२||
तेथे मी अज्ञान मूढमती | करू नेणे तुझी भक्ती |
परि संतमुखे ऐकिली कीर्ती | शरणागता उद्धरी तू ||२३||
माझ्या भाग्यासी नाही मिती | तू भेटलासी जगज्ज्योती |
आता कळेल तैशा रीती | उद्धारगति करी माझी ||२४||
तुझे ब्रीदाचे महिमान | कित्येक उद्धरिले पापीजन |
विरोधभक्तीने रावण | वैकुंठपदी पावविला ||२५||
सात्त्विक भक्त थोर थोर | तुलसीदास कमाल कबीर |
रामदास वायुकुमर | त्यांचा किंकर मज करी ||२६||
मी न मागे धनसंपत्ती | मज नलगे वैकुंठप्राप्ती |
परी तुझ्या भक्तांची संगती | मज घडो सर्वदा ||२७||
कोट्यानुकोटि जन्म घेईन | करीन तुझे पादसेवन |
अवतारलीला मुखाने गाईन | ऐसे मज देई सर्वथा ||२८||
तुझ्या अवतारलीला बहुत | व्यास बोलिले संस्कृत |
ते अज्ञानासी न होय प्राप्त | यास्तव प्राकृत वर्णिले ||२९||
सद्गुरूने निर्मिला हा ग्रंथ | रामपाठ केवळ अमृत |
श्रवणद्वारे पाजूनि यथार्थ | तृप्त केले भक्तजन ||३०||
ज्यासी वैकुंठपदाची गोडी | त्याने रामपाठ भजावा आवडी | त्याचे संकटी घालूनि उडी | श्रीराम रक्षी निजांगे ||३१||
ज्ञानदेव करी हरिपाठ | ब्रह्मचैतन्य करी रामपाठ |
भक्तजनी मानावे दोन्ही श्रेष्ठ | ग्रंथ वरिष्ठ प्रभूचा ||३२||
मज काही ज्ञान नसे किंचित् | हृदयी प्रकटला जानकीकांत | त्याचा त्याने लिहून ग्रंथ | भक्तासी अर्पिला प्रीतीने ||३३||
|| जानकीजीवनस्मरण जय जय राम ||
!! श्री स्वामी समर्थ !!
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