Friday, 9 September 2016

उर्मिला का विरह

उर्मिला का विरह बिछुड़ सजन से अपन, घबराने लगी उर्मिला मन ही मन, अकुलाने लगी। वन गमन को लखन, जब घर से चले संग जाने को उनके, मनाने लगी। साथ जाना सजन के, मना हो गया सफल तप हो, स्वयं को तपाने लगी। बीत चौदह बरस, जाँयगे किस तरह सोचती रात ऑंखें, जगाने लगी। देखती आसमां, अंगना में खड़ी चांदनी में अकेले, नहाने लगी। आस मन में लिये, फिर उगेगा रवी घोर तम में लिये, दिल जलाने लगी। दिन बिताती बिरह में, तपस्विनी बनी लखन सकुशल रहें, नित मनाने लगी। एस० डी० तिवारी by S.D. TIWARI

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