Friday, 9 September 2016

मानस की पीड़ा उर्मिला लक्ष्मण संवाद

मानस की पीडा भाग5.उर्मिला- लक्षमण सम्वाद लक्ष्मण-उर्मिला सम्वाद मे वन गमन पूर्व का चित्रण किया है लक्ष्मण् - उर्मिला तब नव - विवाहित थे बहुत कठिन होता है किसी के लिये भी ऐसे हालात मे रहना , लेकिन उर्मिला और लखन रहे जिसके बारे मे हमने कभी सोचा ही नही कैसे रही होगी एक नव्-विवाहिता चौदह वर्ष तक पति से अलग इसके लिए "विरहिणी उर्मिला" एक भाग अलग से लिखा है ************************** भाग5.उर्मिला- लक्षमण सम्वाद हर्षित था अब लक्ष्मण का मन मिल गया था जैसे नव जीवन माँ का आशीष लेने को चला ऐसा भाई होगा किसका भला? माँ ने भी खुश हो कहा लखन श्री राम की सेवा मे जाओ वन नही तुम केवल बेटे ही लखन तुमसे है जुडा इक और जीवन पत्नी की अनुमति भी ले लो फिर जा के करम पूरा कर दो मुझे गर्व है तुम जैसे सुत पर हो जाएगा मेरा नाम अमर यह अति उत्तम, था माँ से कहा अब मुझे जाने की दो आज्ञा उर्मि है सर्व गुण सम्पन्न माँ नही टालेगी मेरा कहना जाओ तुम अब खुशी से रहना राम की दिल से सेवा करना मुझ पर नही आए कोइ उलाहना सीत का मानना हर कहना अब सीता को ही माँ समझो उस देवी की सेवा मे लगो देखो, कभी न उनको तन्ग करना उनका बेटा बनकर रहना हाँ माँ , मै अब यही करूँगा सेवा मे नही पीछे हटूँगा नही परेशानी दूँगा उनको नही मिलेगा उलाहना तुमको अब चलता हूँ मुझे आज्ञा दो हँस के इस सुत को विदा करदो खुश रहो भाई की सेवा मे रहना श्री राम के चरणो मे माँ से तो मिल गई विदा कैसे होगा पत्नी से जुदा कैसे उसको बतलाएगा उसे छोड के वन को जाएगा यूँ सोचते हुए मन ही मन आ गया उर्मि के पास लखन नही शब्द है कुछ भी कहने को कैसे कहे अकेली रहने को? बस झुका हुआ सिर लिए हुए आँखे था नीची किए हुए चुप-चाप खडा था लखन वहा खुश थी पत्नी उर्मिला जहा देखा उर्मि ने ऐसा लखन और् सोच यह मन ही मन है कोइ शरारत फिर सूझी जिसको उर्मिला नही बूझी बोली ! क्या सूझा अब तुझको कभी समझ नही आया मुझको अब फिर परिहास बनाओगे और फिर से मुझे सताओगे अब जलदी से बोलो भी पिया क्यो उदास है तेरा जिया उर्मिला यूँ लखन से पूछ रही मन की बातो को बूझ रही जब लखन नही कुछ भी बोला उर्मिला का ह्रदय भी डोला क्य अनर्थ हुआ? आया मन मे साधा है मौन क्यो लक्षमण ने? यह सोच के वह घबराने लगी लक्ष्मण को फिर से बुलाने लगी क्या हुआ मुझे भी बत्लाओ यूँ ऐसे न मुझको तडपाओ अब लक्ष्मण धीरे से बोला मुश्किल से उसने मुँह खोला तुम रहो अकेली महलो मे अब मै जाऊँगा जन्गलो मे भैया भाबी की सेवा मे रहूँगा उनके सन्ग ही वन मे माँ केकैई ने है वचन लिया श्री राम को है वनवास दिया यूँ लक्ष्मण थे बता रहे वनवास की बात सुना रहे सुन कर उर्मि तो रोने लगी और मुख आसुँओ से धोने लगी तुम जाओ यही उत्तम होगा इससे अच्छा क्या करम होगा? दुख उनका है वन मे रहने का वन के कष्टो को सहने का गए नही है घर से बाहर कभी पाई सुख सुविधा घर मे सभी वन मे तो कुछ भी नही होगा ऐसे मे तुम्हारा साथ होगा बाँटना उनका अब सारा दर्द अब यही तुम्हारा है बस फर्ज़ चाहती हूँ तेरे सन्ग जाऊँ वन मे भी साथ तेरा पाऊँ पर पूरा करना है करम तुम्हे चाहे कितने भी कष्ट सहे इस करम से नही पीछे हटना दिल से अब सेवा मे जुटना नही करम मे बनूँगी मै बाधा इस लिए मैने निर्णय साधा मै तेरा साथ निभायूँगी जाओ तुम मै रह जाऊँगी माँ की सेवा मे यहाँ रह कर विरह के कष्टो को सहकर मै चौदह वर्ष बिताऊँगी प्रण है! मै नही घबराऊँगी अब छोडो तुम चिन्ता मेरी हर इच्छा पूरी होगी तेरी मै साथ के लिए भी नही कहूँगी तुम बिन मै अब यहाँ रहूँगी सुन लखन के आँसु बहने लगे पत्नी से ऐसे कहने लगे तुम महान हो ! हे उर्मिला पावन स्वभाव मे हो सरला बस मुझ्को इक दे दो वचन भरेन्गे नही कभी तेरे नयन तुम रोयोगी,मुझको होगा दर्द् नही पूरा कर पाऊँगा फर्ज़ उर्मिला ने आँसु पोछ दिए और बोली , अब सुनो प्रिय मेरे प्यार मे इतनी है शक्ति मैने की है तेरी भक्ति उस भक्ति को अपनाऊँगी वादा नही आँसु बहाऊँगी दोनो ही हो रहे थे भावुक कितने ही पल वो थे नाज़ुक? मौन हुए थे दोनो अब जाने फिर वो मिलेन्गे कब भर गए थे दोनो के ह्रदय फिर भी मुख पर मुसकान लिए लक्ष्मण ने कहा अब करो विदा दिल से नही मै कभी तुमसे जुदा माँ की सेवा मे रहना तुम हर सुख दुख माँ से कहना तुम जा रहा तो हूँ तुमको छोड के पर नही जा रहा नाता तोड के हम एक है एक रहेन्गे सदा दिल से नही होन्गे कभी जुदा मै इन्त्ज़ार मे तेरी पिया समझाऊँगी यह पगला जिया माँ के ही पास रहूँगी मै पूरा हर फर्ज़ करून्गी मै लक्ष्मण उर्मि को छोड चले महलो से नाता तोड चले अब है तैयार वन जाने को साथ राम का पाने को उर्मिला थी देख रही ऐसे चन्दा को चकोरी देखे जैसे पिया नाम पुकारती हर धडकन पर नही विचलित हुआ उसका मन धन्य थी वो नारी उर्मिला जिसको जीवन मे सब था मिला पर आज विरहिणी बन रही थी फिर भी वह फर्ज़ निभा रही थी देखते ही चले गए थे लखन मन मे जल रही थी विरह अगन फिर मन को वह समझाती है खुद को अह्सास कराती है चौदह ही वर्ष के बाद लखन आएँगे हमारा होगा मिलन तब तक मै राह मे बैठूँगी पिया को सपने मे देखूँगी

1 comment:

  1. Meri kriti " MAANAS KI PEEDA " ka yah bhaag " VIRAHINI URMILA " yahaa dekhakar achcha lagaa lekin dukh huaa ki kahi bhi mera naam nahi likha hai . Aapko koee rachanaa pasand aaye aur aap use post karanaa chaahe to kisi bhi kavi kaa sobhaagaya hoga lekin kam se kam naam kaa uleekh to karen taaki likhne vaale ki garima bani rahe aur saahitiyak chori kaa ilzaam bhi na lage .

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